
लखनऊ, गर्मी के दस्तक देते ही देशी फ्रिज अर्थात मटके और सुराही का बाजार सज जाता है। कुम्हारों का चाक भी अच्छी बिक्री की उम्मीद में दुगनी तेजी से घूम रहा है। बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने उत्पादों को लेकर बाजार में कई स्कीमें पेश की हैं ऐसे में गरीब तबका कहां जाए। उसके लिए तो मिट्टी के घड़े ही फ्रिज हैं। लेकिन इस बार महंगाई की मार से गरीबों के ये फ्रिज भी अछूते नहीं हैं, जिसके कारण इन्हें खरीदने के लिए आम आदमी को सोचना पड़ रहा है।सूरज की तपिश जैसे-जैसे बढ़ रही है, हर कोई अपने हिसाब से गर्मी का इलाज ढूंढ़ रहा है। बाजार में पंखे, कूलर, एसी और फ्रिज का कारोबार मौसम के मुताबिक गर्म है। लेकिन घंटों तक गुल रह रही बिजली और उसके बाद अघोषित कटौती के आलम में गरीब तबके से लेकर आम आदमी तक के लिए देसी फ्रिज अर्थात मटका ही इकलौता सहारा बचता है।हजारों रुपये खर्च कर पानी का जो स्वाद फ्रिज नहीं दे पाते हैं वह देसी मटके देते हैं। यूपी के गांवों में एक कहावत मशहूर है, “प्यास तो भईया मटका के पानी से ही बुझत है, मसीन से नाही।” टूट जाय तो दूसरा ले लिया।अब महंगाई की मार इस देसी फ्रिज पर भी पड़ गई है। पहले जो मटका तीस रुपए में मिल जाता था आज उसकी कीमत दोगुनी हो गई है।आम आदमी के गले को तर करने के लिए यूं तो नदी के किनारे की मिट्टी से बनी सुराही और दूसरे मटके भी हैं, लेकिन जो बात देसी मटकों में है, वो दूसरों में नहीं। इसे बनाने वाले कुम्हार दयाराम इसकी वजह मिट्टी की खासियत बताते हैं।भयंकर गर्मी ने देसी मटके बनाने वाले कारीगरों के यहां भीड़ तो खूब जुटाई है, लेकिन दोगुनी कीमतों के कारण गरीब तबका इसे खरीदने से पीछे भी हट रहा है। उधर कारीगर बहादुर कहते हैं कि दाम बढ़ाना उनकी मजबूरी है।