महंगाई भले ही काबू से बाहर हो लेकिन चुनावी साल में आंकड़ों का कुछ ऐसा चमत्कार हुआ है कि सरकारी फाइलों में गरीबों की तादाद 2004-05 में 37.2 फीसदी से घटकर 2011-12 में महज़ 21.9 फीसदी रह गई है। लेकिन इस बाज़ीगरी के लिए योजना आयोग ने एक बार फिर तेंदुलकर फॉर्मूला अपनाया है। इसके तहत अब शहरों में रोज़ाना 33 रुपये से ज़्यादा कमाने वाला गरीब नहीं होगा और ग…
महंगाई भले ही काबू से बाहर हो लेकिन चुनावी साल में आंकड़ों का कुछ ऐसा चमत्कार हुआ है कि सरकारी फाइलों में गरीबों की तादाद 2004-05 में 37.2 फीसदी से घटकर 2011-12 में महज़ 21.9 फीसदी रह गई है। लेकिन इस बाज़ीगरी के लिए योजना आयोग ने एक बार फिर तेंदुलकर फॉर्मूला अपनाया है। इसके तहत अब शहरों में रोज़ाना 33 रुपये से ज़्यादा कमाने वाला गरीब नहीं होगा और गांवों में जिसकी आमदनी 27 रुपये से ज़्यादा उसे सरकार गरीब नहीं मानेगी।
अगर आपकी आमदनी रोजाना 33 रुपये 30 पैसे से ज्यादा है को आप गरीब नहीं हैं। आप और हम भले ही इस बात से इनकार कर दें मगर हमारी सरकार को तो ये ही मंजूर है।
योजना आयोग के नये पैमाने के मुताबिक अब गांव में 27.20 रुपये रोजना और शहर में 33.33 रुपये रोजाना से कम खर्च करने वाला ही गरीब माना जाएगा।
सरकार का यह अर्थशास्त्र किसी को भी हैरान कर दे लेकिन थ्योरी में कई और बातें हैं जिनपर भरोसा करना मुश्किल लगेगा। मसलन, 5 लोगों के परिवार में गांव में 4080 रुपये और शहर में 5000 रुपये से ज्यादा खर्च करने वाला गरीब नहीं होगा।
चुनावों के इस साल में आंकड़ों की ज़रा सी हेराफेरी से एक ही बार में 17 करोड़ गरीब कम कर दिए गए। योजना आयोग ने प्रति व्यक्ति खपत के आधार पर जो नए आंकड़े जारी किए हैं उनके मुताबिक वित्त वर्ष 2004-05 में देश में 37.2 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, जबकि 2011-12 में सिर्फ 21.9 प्रतिशत लोग ही गरीब रह गए हैं। इन 7 सालों में गरीबों की संख्या में करीब 42 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। तादाद के हिसाब से 2004-05 में 40.71 करोड़ के मुकाबले 11-12 मे 26.93 करोड़ गरीब मिले।
गरीबी पर इस तेंदुलकर फार्म्यूले पर विवाद तय है। वो इसलिए भी कि इसी तर्ज पर गरीबी रेखा की सीमा तय करने पर पिछली बार विवाद हो चुका है। अब सरकार को विपक्ष के तमाम सवालों का जवाब देने के लिए तैयार रहना होगा वो भी चुनावी साल में।