कर्नाटक के नतीजों ने दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों को चिंतन के लिए खुराक जरूर दे दिया है। बीजेपी अपनी फूट से हार गई तो कांग्रेस को इसका लाभ मिल गया। येदियुरप्पा खुद हारकर बीजेपी का खेल बिगाड़ने में नाकाम रहे तो जेडीएस अपने प्रदर्शन पर संतोष जरूर कर सकती है।
कर्नाटक की इतनी चर्चा शायद आज तक के राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं हुई होगी और न ही इस राज्य के…
कर्नाटक के नतीजों ने दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियों को चिंतन के लिए खुराक जरूर दे दिया है। बीजेपी अपनी फूट से हार गई तो कांग्रेस को इसका लाभ मिल गया। येदियुरप्पा खुद हारकर बीजेपी का खेल बिगाड़ने में नाकाम रहे तो जेडीएस अपने प्रदर्शन पर संतोष जरूर कर सकती है।
कर्नाटक की इतनी चर्चा शायद आज तक के राजनीतिक इतिहास में कभी नहीं हुई होगी और न ही इस राज्य के चुनाव पर इससे पहले राजनीतिक पंडितों और पार्टियों की इतनी तगड़ी नजर रही होगी।
वजह साफ है दक्षिण का यह द्वार बीजेपी के लिए अगर बंद हो गया तो कांग्रेस और कथित सेक्युलर जमात के लिए इससे शानदार मौका नहीं होगा कि वो इसे राहुल गांधी को 2014 का नेता साबित कर दें और यह भी साबित कर दें कि नरेंद्र मोदी का जादू गुजरात के बाहर काम नहीं करता।
यह सच भी है कि अघोषित तौर पर कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी और बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी बड़े नेता के तौर पर कर्नाटक में थे। लेकिन, क्या 8 मई को आए यह नतीजे इनमें से किसी की हार या जीत है? या कहानी एकदम अलग है।
बीजेपी की हार, खराब सरकार देने की सजा और साथ में केंद्रीय नेतृत्व की नाकामी। बीजेपी मुगालते में बनी रही। न ठीक से येदियुरप्पा को डील कर पाई न ही उनके विकल्प पर दमदारी से काम किया। नतीजा सामने है।
कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करने में कामयाब रही। पार्टी राहत की सांस ले सकती है कि राष्ट्रीय मुद्दे अप्रभावी रहे। वैसे कांग्रेस को बीजेपी की फूट का पक्के तौर पर फायदा मिला।
येदियुरप्पा हार गए लेकिन अपने मिशन में कामयाब रहे। उनकी वजह से बीजेपी का बंटाधार हो गया लेकिन खुद उनका मामूली आंकड़ों पर सिमटना यह जाहिर कर गया कि व्यक्ति की हैसियत संगठन से बाहर कुछ खास नहीं होती।
जेडीएस का प्रदर्शन औसत लेकिन उम्मीदों से बेहतर रहा। पार्टी बीजेपी की हालत देख खुद के प्रदर्शन पर संतोष कर सकती है लेकिन जेडीएस लगातार दूसरे चुनाव में उस हद तक क्षेत्रीय अस्मिता उभारने में नाकाम रही जहां से वो बहुमत की उम्मीद कर सकती थी।