नई दिल्ली। अगर राजग की अगली सरकार बनती है तो उसे सार्वजनिक क्षेत्र के यानी पीएसयू बैंकों पर अपना नियंत्रण कम करने का दो टूक फैसला करना पड़ सकता है। रिजर्व बैंक [आरबीआइ] की एक समिति ने एक दिन पहले ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकार के नियंत्रण को पूरी तरह से खत्म करने और केंद्र की हिस्सेदारी को कम करने का सुझाव दिया है। वर्ष 2001 में भी राजग सरकार ने सरकारी बैंकों में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी को घटाने का मन बनाया था, लेकिन उसे लागू नहीं किया जा सका था।
बैंकिंग क्षेत्र के जानकारों के मुताबिक राजग सरकारी बैंकों के मौजूदा स्वरूप में व्यापक बदलाव की समर्थक रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली राजग सरकार ने पीएसयू बैंकों में केंद्र की हिस्सेदारी का स्तर घटाकर 33 फीसद करने का कैबिनेट नोट भी तैयार कर लिया था। यह दीगर है कि उसे पारित नहीं किया जा सका था। उस समय भी सरकारी बैंक बढ़ते फंसे कर्जो [एनपीए] और फंड की किल्लत से परेशान थे। आज भी यही हालात हैं।
इस बार राजग के पास आरबीआइ के पास एक्सिस बैंक के पूर्व चेयरमैन पीजे नायर की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट भी है, जिसे बीते दिन यानी 13 मई को सार्वजनिक किया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जिस तरह की समस्या का अभी सामना कर रहे हैं, उसे दूर करने के लिए इन पर सरकारी नियंत्रण खत्म करना ही होगा। इसके बिना बैंकों को प्रतिस्पर्द्धी नहीं बनाया जा सकता।
आरबीआइ की उच्चस्तरीय समिति की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बैंकों में इक्विटी रखने के लिए बैंक निवेश कंपनी [बीआइसी] का गठन होना चाहिए। केंद्र सरकार को हर बैंक में अपनी हिस्सेदारी बीआइसी को ट्रांसफर कर देनी चाहिए। बैंकों की निगरानी, नियंत्रण संबंधी केंद्र के अपने सारे अधिकार बीआइसी को ट्रांसफर कर देने चाहिए। बीआइसी को काम करने की पूरी आजादी होनी चाहिए। इसके साथ ही नियामक वाले केंद्र के सारे अधिकार रिजर्व बैंक को हस्तांतरित कर देने चाहिए। सभी बैंकों के बोर्ड का नए सिरे से पुनर्गठन होना चाहिए। बोर्ड में आधे से ज्यादा स्वतंत्र निदेशक होने चाहिए। इससे बैंकों के कामकाज में पारदर्शिता आएगी और ये ज्यादा बेहतर तरीके से काम कर सकेंगे। दिसंबर, 2013 तक सभी सरकारी बैंकों को संयुक्त तौर पर फंसे कर्जे की भरपायी के लिए 98,593 करोड़ रुपये के प्रावधान करने पड़े हैं।