इमालवा – लंदन में एक सैनिक का कत्ल हुआ था तो ब्रिटिश पीएम डेविड़ कैमरून फौरन पेरिस दौरा छोड़कर वतन लौटे थे। हमारे यहां देश के लोकतंत्र को लहुलूहान किया गया लेकिन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे रिश्तेदारों के साथ ठंडी हवाएं खाने के लिए अमेरिका में ही रुके हैं। हालांकि उनका सरकारी दौरा 23 मई को ही खत्म हो चुका है। लेकिन अब वो 29 मई को देश लौटेंगे।
देश की सीने पर लोट रहा लाल ड्रैगन फुफकार रहा है। बेगुनाह इस आग में जल रहे हैं लेकिन देश के नेताओं को शायद दिल्ली की गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रही है।
शिंदे और उनकी टीम ने 20 और 21 मई को अमेरिकी अधिकारियों के साथ बोस्टन धमाकों पर बात की। साइबर टेररिज़्म से निपटने के गुर सीखे लेकिन खुद भारतीय दूतावास ने तस्दीक की है कि सरकारी दौरा सिर्फ 23 तारीख़ तक था। सूत्रों की मानें तो शिंदे अमेरिका में मौजूद अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए वहां रुके हैं।
नक्सली आतंकवाद शिंदे के दौरे के एजेंडे में दूर-दूर तक नहीं था। लेकिन विडंबना देखिए, जिस वक्त शिंदे 21वीं सदी की दहशत से निपटने के गुर सीख रहे थे उसी वक्त न्यूयॉर्क में झारखंड की दयामणि बारला आदिवासियों हकों की लड़ाई के लिए ऐलेन राइट्स अवॉर्ड हाथों में थाम रही थीं।
आप कह सकते हैं कि भारत के नेताओं को ऐतहासिक तौर पर दिल्ली की गर्मी रास नहीं आती। शिंदे अमिरिका में हैं तो वित्तमंत्री और विदेशमंत्री भी अरब देशों का रुख़ कर रहे हैं। लेकिन जो सवाल छूटते हैं, वो अहम हैं जो गृहमंत्री अपनी ही पार्टी पर इतने बड़े हमले के बाद भी वतन नहीं लौटते क्या उन्हें कमज़ोर मंत्री नहीं कहा जाए?
अगर देश के गृहमंत्री ही ऐसे हमलों के खिलाफ़ ऐसा रवैया दिखाते हैं तो क्या इससे नक्सलियों का हौसला नहीं बढ़ता? अगर देश के नेता ही नक्सलियों से निपटने में संजीदा नहीं हैं तो लोकतंत्र को इस लाल ड्रैगन से कौन बचाएगा?