इमालवा | गत माह उत्तर प्रदेश के एक मामले में चुनाव आयोग ने पेड न्यूज को लेकर कठोर कार्रवाई की है | मामला उत्तर प्रदेश से विधायक रहीं उमलेश यादव का है जिन्हें आयोग ने पेड़ न्यूज़ को लेकर तीन साल के लिए अयोग्य करार दिया । आयोग ने महिला विधायक उमलेश यादव के खिलाफ यह कार्रवाई दो हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों पर हुए चुनाव खर्च के बारे में गलत बयान देने के लिए की । उमलेश यादव ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 के तहत अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश में बिसौली के लिए हुए विधानसभा चुनाव के दौरान हुए चुनावी खर्च का सही और सच्चा हिसाब नहीं रखा। उन्होंने जिला चुनाव अधिकारी के पास गलत चुनाव खर्च का ब्योरा दाखिल किया और गलत चुनावी ब्योरा दाखिल करने से इनकार करने के साथ ही अपने इस कृत्य का बचाव भी किया था । आयोग के इस निर्णय की जानकारी ज्यादा लोगो तक नहीं पहुच सकी |
चार राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में जो भी उमीदवार हैं उनके लिए यह बड़ी खबर है इस पर लम्बे समय से बहस चल रही है | संसद की स्थायी समिति ने पेड न्यूज के मामले में जांच के बाद जो विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी उसमें भी पेड न्यूज के संदर्भ में मीडिया की मौजूदा स्थिति को चिंताजनक बताया गया है ।
यह सभी को मालूम है की मीडिया की लोकतंत्र में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है, आम धारणा यह है कि यह न केवल लोगों की समस्याओं को आवाज देता है, बल्कि देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य की सही तस्वीर को भी प्रस्तुत करता है। इसलिए जरूरी है कि विभिन्न संचार माध्यमों- अखबार, रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट, मोबाइल फोन- पर प्रकाशित-प्रसारित किए जाने वाले समाचार और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम तथ्यात्मक, निष्पक्ष, तटस्थ और विषयनिष्ठ हों। पर मीडिया के कुछ हिस्सों में व्यक्तियों, संगठनों, निगमों आदि के पक्ष में सामग्री प्रकाशित-प्रसारित करने की एवज में धनराशि या अन्य लाभ प्राप्त करना शुरू हो गया है, जिसे आमतौर पर ‘पेड न्यूज’ कहा जाता है। इस प्रवृत्ति का दुष्प्रभाव वित्तीय, प्रतिभूति, जमीन-जायदाद कारोबार, स्वास्थ्य क्षेत्र, उद्योगों आदि पर पड़ रहा है। निर्वाचन प्रक्रिया में जनमत भी प्रभावित हो रहा है।
यह तथ्य व्याकुल करता है कि ‘पेड न्यूज’ कुछ पत्रकारों के भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं है, इसमें मीडिया कंपनियों के प्रबंधक, स्वामी, निगमें, जनसंपर्क कंपनियां, विज्ञापन एजेंसियां और कुछ राजनेता भी शामिल हैं। मीडिया का इस हद तक समझौतावादी होना चिंताजनक है। पेड न्यूज ‘खबर’ के वेश में भ्रष्टाचार का संस्थागत और संगठित रूप है।
चुनाव के दौरान मालदार उम्मीदवारों द्वारा खबर के रूप में विज्ञापन के जरिए प्रचार होता रहा है लेकिन अब हमें यह तलाशना है कि चुनावों में विज्ञापन की भूमिका क्यों बढ़ी है। क्यों कोई मीडिया कंपनी किसी राजनेता के पक्ष में मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिश करती है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि राजनेताओं की मतदाताओं को ठगने की प्रवृत्ति इस हद तक कैसे विकसित हुई है।
मीडिया के बारे में कहा जाता है कि वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है और उस पर लोगों का भरोसा रहा है। हालांकि पूरी दुनिया की तरह भारत में भी मीडिया का चरित्र शहरी और मध्यवर्गीय रहा है। भारतीय समाज का भरोसा लिखित और प्रकाशित सामग्री पर रहा है। यहां मीडिया में विज्ञापन और खबरों का फर्क करना भी असहज रहा है। विज्ञापनों के जरिए ठगी और बेईमानी आम है। उत्पाद के खरीदार को होने वाला आर्थिक नुकसान बहुत हद तक व्यक्तिगत हो सकता है, पर मतदाताओं के साथ धोखाधड़ी लोकतंत्र के विरुद्ध अपराध की श्रेणी में आता है।