अकेलेपन की समस्याओं का समाधान नहीं होने से जीवनशैली हो रही जटिल – आचार्य तुलसी

0

इमालवा – विविध | कहा जाता है कि एक बार अंधकार ब्रह्मा के पास गया। उसने ब्रह्मा से सूरज की शिकायत करते हुए कहा-‘मुझे सुरक्षा चाहिए।’ ब्रह्मा ने पूछा-‘तुम्हें किससे खतरा है?’ वह बोला-‘सूरज मुझे टिकने नहीं देता। उसके कारण मेरा अस्तित्व संकट में है।’ ब्रह्मा ने सूरज को बुलाया। सूरज उपस्थित हुआ। ब्रह्मा ने कहा-‘मैं जानता हूँ कि तुम शक्तिशाली हो। मुझे यह भी ज्ञात हुआ है कि तुम अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहे हो। बेचारे अंधकार ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुम उसे क्यों सताते हो?’ सूरज ने बिल्कुल नई बात सुनी। उसने कहा-‘आप जो फैसला देंगे, मुझे मान्य होगा। पर मुझे पहले ज्ञात तो हो कि मेरा अपराध क्या है? आपने कहा कि मैं अंधकार को समाप्त करने के लिए उद्यत हूँ। मुझे आपके कथन का प्रतिवाद नहीं करना है। पर मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैंने आज तक कभी अंधकार को देखा ही नहीं। कृपा कर आप एक बार उसे मेरे सामने बुला दें।
ब्रह्मा ने अंधकार को आदेश दिया कि वह स्वयं उपस्थित होकर अपनी समस्या प्रस्तुत करे। अंधकार में सूरज के सामने आने का साहस नहीं हुआ। जिस प्रकार सूरज और अंधकार साथ में नहीं रह सकते, उसी प्रकार अहिंसा और भय का सहअस्तित्व नहीं हो सकता। अहिंसा की पृष्ठभूमि है अभय। जो व्यक्ति अभय नहीं होता, वह अहिंसक नहीं हो सकता।
एक अवधारणा है कि धर्म और अध्यात्म सदा व्यक्तिनिष्ठ होता है। धर्म की साधना करनी है, आध्यात्मिक जीवन जीना है तो जंगल में जाना जरूरी है। एकांत में या गुफा में बैठकर ही साधना की जा सकती है। किंतु जैन तीर्थंकरों ने धर्म-साधना का सामूहिकीकरण किया। उन्होंने व्यक्तिनिष्ठा का निरसन नहीं किया। साधक चाहे तो अकेला रहकर साधना करे, पर यह मार्ग सब लोगों के लिए सुगम नहीं होता। इसलिए संघबध्द साधना का मार्ग खोला गया। इसमें हजारों व्यक्ति एक साथ रहकर साधना कर सकते हैं।
तीर्थंकरों ने संघबध्द साधना का प्रवर्तन क्यों किया? वे जानते थे कि साधना जंगल में हो सकती है, शहर में भी हो सकती है। अकेले में हो सकती है, समूह में भी हो सकती है। रात में हो सकती है, दिन में भी हो सकती है। अकेले रहकर साधना करना कठिन है। इसी प्रकार समूह में रहना भी कठिन है। समूह एक कसौटी है। वहां साधक अपने आपको परख सकता है। जो व्यक्ति समूह में शांत रह सकता है, सबको सहन कर सकता है, वह सफल हो सकता है।
एक समय था, हमारे देश में संयुक्त परिवार की परंपरा थी। सौ-पचास व्यक्ति एक साथ रहते। एक चूल्हे पर भोजन करते। सुख-दु:ख में सहभागी बनते। निश्चिंत होकर रहते। आज परिस्थितियों ने मोड़ ले लिया। परिवारों में बिखराव आ गया। आज का आदमी समाज में रहकर भी अकेलापन भोग रहा है। अब परिवार की परिभाषा बदल गई है। पति-पत्नी और एक-दो बच्चे। छोटा-सा परिवार। वयस्क होने के बाद बच्चों की शादी हो जाती है। उनके परिवार अलग हो जाते हैं। घर में पति-पत्नी दो रहते हैं कितनी कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं। कोई आत्मीयजन मिलने वाला नहीं। कोई संभालने वाला नहीं। पश्चिमी सभ्यता की घुसपैठ ने परिवार में बिखराव तो ला दिया, पर अकेलेपन की समस्याओं का समाधान नहीं किया। इस कारण जीवनशैली जटिल होती जा रही है। व्यक्ति हो या समाज, जब तक अहिंसा जैसा तत्व जीवन के साथ नहीं जुड़ेगा, मनुष्य शांति से नहीं जी सकेगा। शांति से जीना है तो विचारों और व्यवहारों में अहिंसा को लाना ही होगा।
जीवनशैली और अहिंसा के बारे में चिंतन किया जाए तो अनेक नए पहलू उजागर हो सकते हैं। इस प्रसंग में अहिंसा की चर्चा का परिवेश कुछ भिन्न हो जाता है। यहां अहिंसा के संदर्भ में मुख्य रूप से विचारणीय बिंदु है- आत्महत्या, परहत्या, भ्रूणहत्या और प्रसाधन-सामग्री के निर्माण में होने वाली हत्या।
आत्महत्या आधुनिक जीवनशैली का नया तोहफा है। हत्या एक अपराध है। आतंकवाद एक सार्वभौम समस्या है। आत्महत्या पाप है।
कत्लखाने में निरीह पशुओं की हत्या कैसे होती है, इस संदर्भ में वीडियो फिल्म बनाई गई है। उस फिल्म को देखने वाले भीतर तक सिहर उठते हैं। किंतु कुछ समय बाद वे उस वीभत्स दृश्य को भूल जाते हैं और दिनचर्या सदा की तरह चलती रहती है। भू्रणहत्या हो या पशु-हत्या, मनुष्यता को ताक पर रखे बिना कोई भी मनुष्य इतना क्रूर नहीं बन पाता। मनुष्य देव बने या नहीं, वह मनुष्य बनकर रहे। किसी को सुखी न बना सके तो दु:खी क्यों बनाए? किसी को जीवन नहीं दे सके तो किसी का जीवन छीने क्यों?
अकबर का दूत ईरान गया। वह वहां के बादशाह से मिला। वार्तालाप के प्रसंग में उसने कहा-‘हमारे बादशाह सभी द्वितीया के चांद हैं। आप पूर्णिमा के चांद बन गए हैं।’ काम संपन्न कर दूत लौट आया। कुछ लोगों ने बादशाह के पास उसकी शिकायत की। अकबर नाराज हो गया। उसने दूत को बुलाकर पूछताछ की। दूत बोला-‘जहाँपनाह! आपके पास पहुँची हुई सूचना सही है। मैंने यह बात कही थी।’
‘क्यों?’ इस प्रश्न के उत्तर में वह बोला -‘पूनम का चाँद घटता है। द्वितीय के चाँद में बढ़ने की संभावना रहती है।’ बादशाह यह बात सुन खुश हो गया। बातचीत करने की भी कला होती है। कौन-सी बात किस व्यक्ति को, किस समय, किस रूप में और किस लहजे में कहने से कार्य सिध्द होता है तथा किस बात से सफलता के शिखर पर पहुँचा हुआ व्यक्ति भी नीचे गिर जाता है, यह समझने वाला व्यक्ति अकबर के दूत की तरह संभावित आपदा से छुटकारा पा लेता है। समाज में जीने के लिए अहिंसा की शरण में जाना भी आवश्यक है। अन्यथा समाज चल नहीं सकता। इस दृष्टि से आवश्यक है कि अहिंसा का प्रशिक्षण विद्यालयों और महाविद्यालयों में दिया जाए तथा उसे जीवनशैली के साथ जोड़ा जाए। इससे अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है।
-आचार्य तुलसी