एक समय की बात है| राजा के पुत्र सिद्धार्थ अपने चचेरे भाई देवदत के साथ बगीचे में टहल रहे थे|
देवदत ने अचानक तीर चलाकर एक उड़ते हुए हंस को घायल कर जमीन पर गिरा दिया| घायल और पीड़ा से तड़पते हंस का दुःख सिद्धार्थ से नहीं देखा गया| उसने हंस को उठा लिया और तीर निकालकर उसे संभाला तो देवदत बोला- “भाई, यह शिकार मेरा है, इसे मुझे दे दो|”
“भाई, मैं इसे नहीं दूँगा|” सिद्धार्थ ने उत्तर दिया|
“क्यों?” देवदत ने प्रश्न किया|
“भाई, मैंने इसे बचाया है| अब तुम ही फैसला करो कि इस पर मारने वाले का हक है या बचाने वाले का?”
देवदत ने सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोदन से शिकायत की और कहा- “इस हंस पर मेरा अधिकार है| मैंने इसे तीर मारकर गिराया है|”
राजा शुद्धोदन बोले- “पुत्र, तुम यह हंस देवदत को क्यों नहीं दे देते? उसी ने तो इसे तीर चलाकर गिराया है?”
“यह बात तो सच है पिताजी, पर आप ही फैसला कीजिए कि एक उड़ते हुए बेकसूर हंस पर तीर चलाने का उसे क्या हक था? उसने इस पर तीर क्यों चलाया? इसे घायल क्यों कर दिया? मुझसे इस दुःखी प्राणी का कष्ट नहीं देखा गया, इसीलिए मैंने तीर निकालकर पानी से इसका घाव धोया और इसकी सेवा कर इसके प्राण बचाए| इसकी प्राणरक्षा के कारण इस पर मेरा अधिकार होना चाहिए|”
देवदत को अपनी भूल का अहसास हो गया| सिद्धार्थ में भी हँस को छोड़ दिया| वह हँस मुक्ति पाकर आसमान में उड़ गया| इसमें कोई संदेह नहीं कि मारने वाले से बचाने वाले की मान्यता अधिक होती है|