पृथ्वीलोक के न्यायाधीश व दंडाधिकारी हैं शनि देव

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शिवजी ने शनिदेव को वरदान दिया था, ‘नवग्रहों में तुम्हारा स्थान सर्वश्रेष्ठ रहेगा। तुम पृथ्वीलोक के न्यायाधीश व दंडाधिकारी रहोगे। साधारण मानव ही नहीं, देवता, असुर, सिद्ध, विद्याधर और नाग भी तुम्हारे नाम से भयभीत रहेंगे।’

ज्येष्ठ माह की अमावस्या को शनि जयंती के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन शनिदेव का जन्म हुआ था, जिनका तमाम देवताओं में अलग ही महत्व है। अक्सर लोग शनि को क्रूर ग्रह कहते हैं लेकिन यह बात सच नहीं है।

शनि न्यायप्रिय हैं। वे गलत कार्य करने वालों को दंडित करते हैं और अच्छे कार्य करने वालों को पुरस्कृत। हां, उन्हें इतनी शक्ति प्राप्त है कि मानव तो क्या, देवता भी उनसे डरें। शनि को स्वर्ण मुकुट धारण किए दर्शाया जाता है। वे नीले वस्त्र धारण करते हैं। इनकी चार भुजाओं में क्रमश: धनुष, बाण, त्रिशूल एवं वरमुद्रा है। उनका वाहन कौआ है।

कथा जन्म की

शनिदेव के जन्म की कथा कुछ यूं है कि सूर्यदेव का विवाह संज्ञा से हुआ था। उन्हें तीन संतान थीं: मनु, यम और यमुना। सूर्यदेव के तेज को संज्ञा अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं। अत: एक दिन वे अपनी छाया को सूर्य की सेवा में छोड़कर वहां से चली गईं। कुछ समय बाद छाया के गर्भ से शनिदेव का जन्म हुआ।

कहा जाता है कि जब शनिदेव गर्भ में थे, तब छाया भगवान शिव की आराधना में इतनी तल्लीन रहीं कि अपने खाने-पीने की सुध भी खो बैठीं। अत: जब शनि का जन्म हुआ, तो वे श्याम वर्ण के थे। शनि का श्याम वर्ण देखकर सूर्य ने छाया पर आरोप लगाया कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता। तभी से शनि अपने पिता सूर्य से शत्रुता रखते हैं। यह भी कहा जाता है कि जन्म के बाद जैसे ही शनि ने पहली बार अपनी आंखें खोलीं, सूर्य को ग्रहण लग गया!

शिवजी का वरदान

शनिदेव की शक्तियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अनेक वर्षों तक भूखे-प्यासे रहकर भगवान शिव की आराधना की। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उनसे वरदान मांगने को कहा। तब शनि ने यह वरदान मांगा कि वे अपने पिता से भी अधिक शक्तिशाली बनें।

शिवजी ने उन्हें वरदान देते हुए कहा, ‘नवग्रहों में तुम्हारा स्थान सर्वश्रेष्ठ रहेगा। तुम पृथ्वीलोक के न्यायाधीश व दंडाधिकारी रहोगे। साधारण मानव ही नहीं, देवता, असुर, सिद्ध, विद्याधर और नाग भी तुम्हारे नाम से भयभीत रहेंगे।’

न्यायाधीश व दंडाधिकारी की अपनी भूमिका के चलते ही शनि हमारे कर्मों का पूरा लेखा-जोखा रखते हैं और उनके अनुसार हमें दंडित अथवा पुरस्कृत करते हैं। शनि को तपकारक ग्रह कहा गया है। इन्हें सीमा ग्रह भी कहते हैं। कारण यह कि जहां सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा शुरू होती है।

खगोलशास्त्र की दृष्टि से देखें, तो शनि सबसे मंद गति से घूमने वाला ग्रह है। अब इसे शनि की न्यायाधीश वाली भूमिका से जोड़कर देखें। हम सब जानते हैं कि शीघ्रता करने से गलती होने की पूरी संभावना रहती है।

न्याय करने वाले को मंद गति से चलते हुए, सभी पक्षों का ध्यान रखकर निर्णय करना होता है। अत: यह स्वाभाविक ही है कि न्याय करने वाले शनि मंद गति से चलें।

पूजा एवं दान

शनि जयंती के अवसर पर विशेष विधि-विधान से पूजा-पाठ तथा व्रत किया जाता है। इस दिन किया गया दान-पुण्य और पूजा-पाठ सभी कष्टों को दूर करने में सहायक होता है। शनिदेव के लिए दान में दी जाने वाली वस्तुओं में काले कपड़े, काली उड़द, काले जूते, तिल, जामुन, लोहा, तेल आदि शामिल हैं।

इस दिन शनिदेव को प्रसन्न करने हेतु अनेक मंत्रों एवं स्त्रोतों का गुणगान किया जाता है। जो भक्त पूरे भक्तिभाव से व्रतोपासना करते हैं, वे पाप की ओर जाने से बच जाते हैं।

शनि की दशा आने पर उन्हें कष्ट नहीं भोगना पड़ता। शनि जयंती के दिन प्रात: नित्य कर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ, श्वेत वस्त्र धारण कर शनिदेव की पूजा की जाना चाहिए।

पूजा के पश्चात उनसे अपने द्वारा जाने-अनजाने किए गए पापों के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए। इस दिन पीपल में जल देने और उस पर सूत्र बांधकर उसकी सात बार परिक्रमा करने का भी रिवाज है।