एक बाबू जी थे| अंग्रेजी पढ़े-लिखे, कोट-बूट-हैट-पतलून पहनने वाले| वे सदा अंग्रेजी ही बोलते थे| नौकर पर बिगड़ते तो अंग्रेजी में गाली देते और कुत्ते पर प्रसन्न होते तो अंग्रेजी में आशीर्वाद देते|
बाबूजी के एक लड़का था| दुर्भाग्य से वह बीमार हो गया| डॉक्टर आये| एक, दो, चार डॉक्टर आये और लड़के की भुजा में सुई चुभाकर चले गये| वैद्य आये, हकीम आये, बटिका दी और दवा खिलायी; पर लड़का अच्छा नहीं हुआ| उसकी बीमारी बढ़ती ही गयी|
एक दिन एक साधु आये| साधु ने कहा – ‘हनुमान् जी को सिन्दूर चढ़ा दो और सवा सेर लड्डू, तो लड़का अच्छा हो जायगा|’
बाबूजी ने कहा – ‘मैं पत्थर को पत्थर ही मानता हूँ, पर तुम कहते हो तो सिन्दूर पोतकर लड्डू दिखा आऊँगा’ लड़के के अच्छे होने की लालच में वे इतना कर आये|
परंतु लड़के की बीमारी वैसी ही रही|
सबेरे बाबूजी साधु के पास गये और बोले कि ‘लड़का अच्छा नहीं हुआ|’ साधु ने कहा – ‘लाओ मुझे दो सिन्दूर, घी, मिठाई, फूल और धूपबत्ती|’
साधु ने हनुमान् जी की पूजा की और प्रसाद का सिन्दूर लड़के के मस्तक पर लाकर लगा दिया| लड़का उठकर बैठ गया| उसका ज्वर उतर गया| बाबूजी ने आश्चर्य से पूछा – ‘तुम्हारी पूजा से यह अच्छा हो गया, मेरी पूजा से क्यों नहीं हुआ?’
‘तुमने पूजा ही कहाँ की?’ साधु ने कहा –
‘मैंने पूजा तो की|’
‘बिना श्रद्धा के पूजा कैसी और बिना पूजा के बिमारी कैसे मिटती?’